भदावर में कभी सावन का महीना विशेष रूप से बेटियों - बहनो को समर्पित था। बेटियों द्वारा झूला झूलना देवी पार्वती के मायके आगमन की खुशी के प्रतीक रूप में मनाया जाता था। यह सुंदर पारंपरिक प्रथा अब लुप्त होती जा रही है। गाँव की बेटियों के लिए झूले डालना अब नहीं हो रहा। तब यह सिर्फ मनोरंजन नहीं था, बल्कि एक धार्मिक और सामाजिक कर्तव्य था। गाँव की लड़कियों और महिलाओं के लिए पेड़ों पर मजबूत झूले लटकाए जाते थे। कई घरों में नवविवाहित बेटियाँ अपने मायके सावन में आती थीं, उनके स्वागत और खुशी के लिए भी झूले डालना सबसे प्रमुख परंपरा थी।
"लेजु पटुली" जो झूले बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाली पारंपरिक रस्सी थी लुप्तप्रया है। आज कौन जनता है की लेजु पटुली कैसे बनती है ? लेजु पटुली - पुराने कपड़ों/साड़ियों को ऐंठ कर बनाई गई, झूला बांधने की मजबूत रस्सी थी और भदावर की पारंपरिक झूला संस्कृति का अभिन्न हिस्सा थी। पुराने कपड़ों को पतली-पतली पट्टियों में फाड़ा जाता था और फिर 2-3 पट्टियों को गूंथ कर लंबी रस्सी बनाई जाती थी, पटुलियों को आम, नीम या बरगद जैसे मजबूत पेड़ों की डाल पर कसकर बांधा जाता था। भदावर के गांवों में लेजु पटुली केवल रस्सी नहीं, बल्कि एक सामाजिक प्रतीक रही: गांव के बुजुर्ग खुद झूले के लिए ये पटुलियाँ बनाकर बहनों-बेटियों को सौंपते थे, जो सावन की रौनक और बेटी के सम्मान दोनों का प्रतीक होता था।
परम्पराएं का मरना - आधुनिकीकरण के दुष्प्रभावों को दर्शाता है: पारंपरिक ज्ञान का लुप्त होना सामुदायिक भावना में कमी, प्राकृतिक संसाधनों का नाश, सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास, कैसे छोटी व सरल खुशियों और सामुदायिक परंपराओं का नुकसान हुआ है जो कभी पूरे गाँव समाज को एक सूत्र में बांधती थीं।
जय बटेश्वर नाथ !
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