श्रावण मास के आगमन के साथ ही बटेश्वर धाम में भक्ति, उल्लास और श्रद्धा का वातावरण बन जाता है। इसी मास में कांवड़ यात्रा का शुभारंभ होता है, जिसमें लाखों शिवभक्त पवित्र नदियों से जल लेकर अपने आराध्य बटेश्वरनाथ भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं। बटेश्वर धाम के जमुना घाट पर बने 101 शिव मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है, यहाँ कांवड़ यात्रा की परंपरा और महत्व को स्थानीय संस्कृति और पौराणिक कथाओं से ज्ञात होता है की पुरातन काल से ही - सावन में सोरो घाट से कावड़ बटेश्वर लाने की परम्परा है। सोरों तीर्थ शूकरक्षेत्र - कासगंज ज़िले में गंगा नदी के समीप एक सतयुगीन तीर्थ स्थान है, जो की 'शूकरक्षेत्र' पृथ्वी का उद्गम स्थल कहलाता है। सोरों तीर्थ का सम्बन्ध भगवान विष्णु के वराह (शूकर) अवतार से है जिन्होंने पृथ्वी को महाप्रलय से निकला था। वहीं बटेश्वर धाम - आगरा ज़िले के बाह तहसील में स्थित है। यह धाम भगवान शिव के यमुना घाट पर 101 प्राचीन स्वेत मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है जहाँ प्रत्येक मंदिर में अद्धभुत शिवलिंग है। बटेश्वर के कांवड़िए गंगाजल सोरों घाट से लेकर आते रहे हैं।
कांवड़ यात्रा का इतिहास और पौराणिक कथा
कांवड़ यात्रा की परंपरा का उल्लेख अनेक
पौराणिक ग्रंथों में मिलता है। समुद्र मंथन में निकले हलाहल-विष को भगवान शिव ने पी
कर कंठ में रोक लिया, जिससे उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाए। शिव के विषपान
के बाद देवताओं और भक्तों ने उनके कंठ में विष की अग्नि की शांति के लिए उन पर गंगाजल
अर्पित किया था। इसी कथा से कांवड़ यात्रा की शुरुआत मानी जाती है। कांवड़ यात्रा का
सीधा उल्लेख किसी प्राचीन ग्रंथ में तो नहीं मिलता, परन्तु लोक परंपराओं, भक्ति भावना
और मौखिक सांस्कृतिक धरोहर में रच-बस गई है। वाराह पुराण, स्कंद पुराण, और शिव पुराण
में जलाभिषेक की महिमा का वर्णन है। पारंपरिक संत-साहित्य, तुलसीदास कृत ग्रंथों में
शिव भक्ति और जलाभिषेक का उल्लेख है। कुछ मान्यताएं चली आ रही हैं।
- एक मान्यता के अनुसार, सबसे पहले भगवान परशुराम ने गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर उत्तर प्रदेश के बागपत स्थित पुरा महादेव में शिवलिंग पर जल चढ़ाया था। इस प्रकार उन्हें पहला शिवभक्त कांवड़िया माना जाता है।
- एक अन्य कथा में श्रवण कुमार द्वारा अपने माता-पिता को कांवड़ में बिठाकर गंगा स्नान कराने और गंगाजल लाकर भगवान शिव का अभिषेक करने का उल्लेख मिलता है।
- कुछ मान्यताओं के अनुसार, रावण ने भी कांवड़ यात्रा की थी और शिवलिंग पर जल अर्पित किया था। उल्लेखनीय है की रावण एक परम शिव भक्त था।
कांवड़ यात्रा का धार्मिक और सामाजिक
महत्व
कांवड़ यात्रा केवल धार्मिक अनुष्ठान
नहीं, बल्कि अनुशासन, सात्विकता और सामाजिक एकता का भी प्रतीक है। कांवड़ उठाने वाले
भक्त, जिन्हें कांवड़िया कहा जाता है, बांस की डंडी पर दोनों ओर जल से भरे पात्र (ब्रह्मघट
और विष्णुघट) बांधकर पैदल यात्रा करते हैं। यात्रा के दौरान वे सात्विक जीवन, संयम
और नियमों का पालन करते हैं।
- कांवड़ यात्रा के दौरान मन, वचन और कर्म की शुद्धता रखनी होती है।
- यात्रा में कांवड़ को जमीन पर नहीं रखा जाता; यदि ऐसा हुआ तो पुनः गंगाजल भरना पड़ता है।
- कांवड़ यात्रा के दौरान भक्त नंगे पांव चलते हैं और केवल शुद्ध सात्विक भोजन करते हैं।
- कांवड़ यात्रा अश्वमेघ यज्ञ समान फलदायी माना गया है, जिससे परिवार में सुख-शांति और समृद्धि आती है।
ब्रह्मघट और विष्णुघट क्या हैं?
कांवड़ में ब्रह्मघट और विष्णुघट दो पवित्र
घट (कलश-पात्र) होते हैं, जिन्हें कांवड़ में बाएं और दाएं बांधा जाता है। ब्रह्मघट- ‘ब्रह्म’ (सृजनकर्ता) का घट माने जाने वाला जलपात्र। जो परंपरागत रूप से कांवड़
के दाहिने ओर बांधा जाता है। विष्णुघट - ‘विष्णु’ (पालनकर्ता) का घट है और कांवड़ के बाएँ ओर बांधा जाता है। कांवड़ यात्रा के प्रतीकवाद में ये ब्रह्मा (सृष्टि-आरंभकर्ता) तथा विष्णु (पालनकर्ता) का स्वरूप लिए हैं, जैसे शिव त्रिदेव में तीसरे
हैं (संहारकर्ता) और जल उन्हीं को अर्पित होना है। इसमें गंगाजल को ब्रह्मघट तथा विष्णुघट
नाम दिया गया है। कांवड़िया - कांवड़ के दोनों सिरों पर गंगाजल से भरे दो पात्र बांधता
है, जिन्हें पौराणिक और प्रतीकात्मक रूप से ‘ब्रह्मघट’ और ‘विष्णुघट’ कहा जाता है।
ये संतुलन, अनुशासन और धार्मिक भावना के प्रतीक हैं।
कांवड़ यात्रा के मुख्य चार प्रकार:
- सामान्य कांवड़: यात्री जहां चाहे रुककर आराम कर सकते हैं। लेकिन आराम करने के दौरान कांवड़ जमीन से नहीं छूनी चाहिए।
- डाक कांवड़: डांक कांवड़ तेजी से पूरी की जाने वाली कांवड़ यात्रा होती है। इसमें कांवड़िए बिना रुके तेजी से चलते हैं और इस यात्रा में कांवड़ को नीचे नहीं रखा जाता इसलिए जब एक कांवड़िया थक जाता है तो दूसरा कंधे पर रखकर यात्रा शुरू करता है।
- खड़ी कांवड़: खड़ी कांवड़ यात्रा शूकरक्षेत्र सोरों : पृथ्वी उत्पत्ति स्थल, पृथ्वी विज्ञान ब्रह्माण्डीय चेतना का केंद्र में कांवड़िए पूरी यात्रा खड़े रहकर करते हैं।
- दांडी कांवड़: इस यात्रा में कांवड़िए अपनी मनोकामना पूरा करने के लिए दंडवत कावड़ लेकर चलते हैं।
अन्य विशेष प्रकार: इनमें स्थूलकावड़,
कंधीकावड़, नागकावड़, सिन्धू कावड़, पंचमुखी कावड़, त्रिशूलकावड़, रामकावड़, शंकरकावड़
आदि शामिल
बटेश्वर धाम और कांवड़ यात्रा: स्थानीय
संस्कृति में योगदान
बटेश्वर, यमुना के तट पर स्थित, 101 शिव
मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है और यहां की संस्कृति शिव भक्ति में रची-बसी है। सावन में
यहां का वातावरण अद्भुत हो जाता है, जब आसपास के गांवों और दूर-दराज़ से कांवड़िए गंगाजल
या यमुना जल लेकर बटेश्वरनाथ मंदिर में शिवलिंग का अभिषेक करने पहुंचते हैं। स्थानीय
मान्यता के अनुसार, इस क्षेत्र में एक बरगद के वृक्ष (वट) के नीचे भगवान शिव विश्राम
करते थे, जिससे इस स्थान का नाम 'बटेश्वर' पड़ा।
- बटेश्वर के मंदिरों की पंक्ति, यमुना के किनारे, कांवड़ियों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र है।
- यहां प्रतिवर्ष सावन में शिवरात्रि और अन्य पर्वों पर विशाल मेले और धार्मिक आयोजन होते हैं, जिसमें कांवड़ यात्रा की झलक स्पष्ट दिखती है।
- बटेश्वर का पशु मेला, जो शिव के 'पशुपति' स्वरूप से जुड़ा है, भी स्थानीय संस्कृति में कांवड़ यात्रा की महत्ता को दर्शाता है।
बटेश्वर में कांवड़ यात्रा का अनुभव
बटेश्वर में कांवड़ यात्रा केवल धार्मिक
अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामूहिक उत्सव है। यहां के मंदिरों में जलाभिषेक के लिए आने वाले
कांवड़िए स्थानीय लोगों के साथ मिलकर भजन-कीर्तन, रात्रि जागरण और सामूहिक भोज का आयोजन
करते हैं। यह परंपरा न केवल आस्था, बल्कि गांव-समाज की एकता और सहयोग का भी प्रतीक
है। कांवड़ यात्रा, बटेश्वर धाम की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान का अभिन्न हिस्सा है।
यह यात्रा न केवल शिव भक्ति की पराकाष्ठा है, बल्कि स्थानीय संस्कृति, अनुशासन, सेवा
और सामाजिक एकता का भी संदेश देती है। बटेश्वर के शिव मंदिरों की पंक्ति, यमुना का
पावन तट और सावन में गूंजते 'बोल बम' के जयकारे, कांवड़ यात्रा को और भी अलौकिक बना
देते हैं। इस यात्रा में भाग लेना, वास्तव में, आत्मिक शुद्धि और सांस्कृतिक गौरव का
अनुभव है।
जय बटेश्वर नाथ महाराज !
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