शीश गंग भाल चंद्र नेत्र लाल कंठ व्याल
यह भजन भगवान शिव की स्तुति में गाया जाता है, और इसका अर्थ है जिसके सिर पर गंगा है, माथे पर चंद्रमा है, लाल आंखें हैं, और गले में सांप है". "शीश गंग" का अर्थ है सिर पर गंगा, "भाल चंद्र" का अर्थ है माथे पर चंद्रमा, "नेत्र लाल" का अर्थ है लाल आंखें, और "कंठ व्याल" का अर्थ है गले में सांप।
यह भजन भगवान शिव के विभिन्न रूपों और गुणों का वर्णन करता है, जैसे कि उनके सिर पर गंगा, माथे पर चंद्रमा, लाल आंखें, गले में सांप, भस्म से ढका शरीर, और जटाओं वाला सिर. यह भजन भगवान शिव को "सत्यम शिवम् सुंदरम्" के रूप में भी वर्णित करता है, जिसका अर्थ है "सत्य, शुभ, और सुंदर"
पूर्ण भजन इस प्रकार है: -
शीश गंग भाल चंद्र नेत्र लाल कंठ व्याल,
भस्मयुक्त अंग अंग जटा जुटधारी है।
भूतेश्वर नागेश्वर, डमरू त्रिशूलधर,
अशुचि का घर, बैल जिसकी सवारी है।
सत्यम शिवम् सुंदरम्,
कहे जिसे वेद,कन्या का तुम्हारी,
वही शिव अधिकारी है।
ॐ नमः पार्वती पतये,
हर हर महादेव!
यह भजन भगवान शिव की महिमा का गुणगान करता है और उन्हें "हर हर महादेव" कहकर प्रणाम करता है शीश गंग भजन: शिव पर एक सुन्दर भजन - “शीश गंग भाल चंद्र नेत्र लाल कंठ व्याल...” ये पंक्तियां भगवान शिव की महिमा गाती हैं। सच कहूँ तो, इसमें उनके अलग रूपों, निशानों और उनकी दिव्य खूबियों का जिक्र बड़ा ही खूबसूरती से हुआ है। ये भजन सिर्फ धर्म की बात नहीं करता, बल्कि हमारे भारतीय सांस्कृतिक जीने-मरने में भी उसका खास मुकाम है, खासकर बटेश्वर (जो आगरा के पास है) जैसे शिव के तीर्थ स्थलों में।
अब थोड़ा भावार्थ देखें तो -
- शीश गंग यानी शिव के सिर पर बहती हुई गंगा का पानी, जो उनकी दया और पूरे संसार के पोषण का प्रतीक है।
- भाल पर चंद्रमा, जो शांति, सामंजस्य और अमरता का इशारा करता है।
- लाल नेत्र ये उनकी तीसरी आंख है जो जागरूकता और संहार शक्ति को दर्शाती है।
- गले में सर्प (कंठ व्याल), जो हमारे सब डर और मौत के डर पर विजय का निशान है।
- पूरे शरीर पर भस्म, जो मरण को समझने और उससे ऊपर उठने की क्षमता बताता है।
- और जटाएं— ये तपस्या, साधना और प्रकृति से जुड़ाव का झलक देते हैं।
फिर ये भजन “सत्यम शिवम् सुंदरम्” बोलता है, यानी सच,कल्याण और सुंदरता का सबसे बड़ा स्वरूप शिव हैं।
अब रचनाकार कौन था? इसका तो सच कहूं, कोई पक्का ऐतिहासिक सबूत नहीं है। भजन पारंपरिक तौर पर अलग-अलग मंदिरों और लोक में गाया जाता रहा है। कई बार इसे हम “परंपरागत” भजन ही कहते हैं। वैसे कुछ प्रसिद्ध गायकों जैसे रत्न मोहन शर्मा या राजेन्द्र जैन ने इसे खूब छुआ है। शायद इसी वजह से ये भजन इतना आसानी से दिल में छा गया।
चलो अब बटेश्वर की बात करते हैं - बटेश्वर (जो आगरा के करीब है) उत्तर भारत के सबसे पुराने शिव तीर्थों में से एक माना जाता है। यमुना किनारे लगभग सौ से ज्यादा शिव मंदिर हैं। इसे “बटेश्वरनाथ” के नाम से जानते हैं क्योंकि मान्यता है कि शिव ने यहाँ वट (बरगद) के पेड़ के नीचे तप किया था। और वैसे भी, रामायण, महाभारत, मत्स्य पुराण इन सब ग्रंथों में भी इसका जिक्र मिलता है। यहाँ हर साल श्रावण मास में बड़ी कांवड़ यात्रा होती है और एक विशाल पशु मेला भी, जिसमें हजारों शिव भक्त गंगाजल लेकर आते हैं।
भजन और बटेश्वर का क्या कनेक्शन है? जैसे “शीश गंग...” वाला भजन, बटेश्वर के मंदिरों में खासकर श्रावण मास, शिवरात्रि और अन्य खास त्यौहारों पर गूंजता है। इसमें गंगा, चंद्रमा और नाग जैसे शिव के प्रतीक जुड़ते हैं, जो स्थानीय मान्यताओं से सीधे जुड़े हैं। कांवड़ यात्रा में लाया गया गंगाजल, जिसे बटेश्वरनाथ को चढ़ाया जाता है, वो भजन की उस भावना को जीवित रखता है।
अब सोचो ज़रा - आज के जमाने में भी ये भजन क्यों लोकप्रिय है?
भक्तों के लिए ये ध्यान और भक्ति का जरिया है। इसमें शिव का वह व्यापक और कल्याणकारी रूप झलकता है, जो हर किसी के दिल को छू जाता है। साथ ही सांस्कृतिक रूप से ये भजन बटेश्वर जैसे तीर्थों की लोक परंपराओं को जोड़ता है और सामाजिक एकता को मजबूत बनाता है। और हाँ ! ये भजन डिजिटल दुनिया में भी कमाल कर रहा है। यूट्यूब, म्यूजिक ऐप्स और धार्मिक आयोजनों में लाखों लोग इसे सुनते और गुनगुनाते हैं, खासकर युवा पीढ़ी इसे काफी पसंद करती है।
आज जब ज़िंदगी इतनी टेंशन से भरी है, तो ऐसे भजन हमारे मन को शांति और पॉजिटिव एनर्जी देते हैं। तो आखिर ये “शीश गंग” भजन सिर्फ एक गीत नहीं, बल्कि एक अनुभव है।
वैसे आप बताइए, आपको ये भजन सुनना कैसा लगता है? कभी बटेश्वर जाने का मौका मिला? कहीं आपके आस-पास भी ऐसी कोई खास परंपरा है? थोड़ा सोचिए, कभी-कभी ऐसे भजनों की खुमारी में खो जाना अच्छा भी होता है, है ना?
जय बटेश्वर नाथ !
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