1857 के भारतीय विद्रोह (Indian Rebellion of 1857) अपने चरम पर था और बढ़ता जा रहा था। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारतीय धार्मिक रीति-रिवाजों और मान्यताओं को दबाने के लिए भारतीय सैनिको को कारतूसों में जानवरों की चर्बी का उपयोग किया जा रहा था, जिससे हिंदू और मुस्लिम दोनों सैनिकों में सैन्य विद्रोह (Sepoy Mutiny) पनप रहा था जिसकी परिणति 1857 के भारतीय विद्रोह में हुई। सैन्य विद्रोह की तात्कालिक चिंगारी 10 मई, 1857 को मेरठ में सिपाहियों का विद्रोह था, जो तेजी से भारत के अन्य हिस्सों में फैल गया। इसके साथ ही नागरिक विद्रोह अधिक विविध था। विद्रोहियों में तीन समूह शामिल थे : सामंती कुलीन वर्ग, ग्रामीण जमींदार और किसान। कुलीन वर्ग, जिनमें हड़प सिद्धांत ( Doctrine of lapse ) के तहत उपाधियाँ और ज़मीदारी छीनी गई, उत्तराधिकारिता को मान्यता देने से इनकार कर दिया था। किसानों व ग्रामीण आबादी पर भू-राजस्व का बोझ और उच्च करों के कारण व्यापक कृषि अशांति हुई, जिसने विद्रोह में योगदान दिया। इन कारणों को एक साथ मिलाने पर, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक असंतोष का एक अस्थिर मिश्रण तैयार हुआ और ये विद्रोह कीआग 1858 तक बाह-पिनाहाट और बटेश्वर के गांव तक भी पहुंची।
Brigadier D. Showers |
वर्ष
1858 में भारतीय सैनिक विद्रोह के दौरान चंबल नदी के बीहड़ों के बीच बसे बाह, पिनाहाट
में बसे छोटे-छोट गॉँवों में भीषण युद्ध ब्रिटिश रेजीमेंटों से हुए थे। यह उन बहादुर
विद्रोहियों की अनकही कहानी है जिन्होंने दमनकारी ब्रिटिश सेनाओं के खिलाफ अपनी मातृभूमि
की रक्षा के लिए लड़ाई लड़ी। समय में पीछे जाकर हमारी ये यात्रा, इन बहादुर स्वतंत्रता
सेनानियों की नज़र से देखी गई है, ये कहानी उन बलिदानों, कठिनाइयों और क्रूरता को उजागर
करेगी जो उन्होंने उन विषम दिनों के दौरान सहन की थीं। उस भूमि की कल्पना करें जहां
ग्रामीण मिट्टी जोतते थे मोटे-अन्न उगा कर परिवार पोषण और प्रकृति के साथ सद्भाव में
रहते थे, अपनी पैतृक मातृभूमि के साथ बंधन को संजोते थे। यह पिनाहाट था, एक ऐसी जगह
जहां पीढ़ियां फली-फूली थीं, लेकिन उनके शांतिपूर्ण अस्तित्व को ब्रिटिश साम्राज्य
द्वारा खतरा था। उन्हें कपास और नील की खेती के लिए मजबूर किया गया जबकि उनके घरों
में खाने को अन्न की कमी थी, कुछ सैनिक जो ब्रिटिश सेना से विद्रोह कर आस-पास के गॉवों
में आ गए थे, उन पर प्रशासन की निगाहें टिकी हुईं थी। आगे जो घटा वो जान-मानस की स्रमितियों में ऐसे क्षण हैं जो अपनी जन्मभूमि
की रक्षा और सेवा करने वाले निहत्ते ग्रामीणो की अदम्य सौर्य भावना और वीरता के प्रमाण
स्वरुप हैं।
ब्रिगेडियर शॉवर्स का पिनाहाट आगमन
15 मार्च, 1958 को, ब्रिगेडियर शॉवर्स, आगरा और मथुरा जिले में शांति और व्यवस्था बहाल करने के लिए फतेहाबाद होकर पिनाहाट पंहुचा। उसके साथ भारी दल बल था, उसके दस्ते में दो 9-पाउंडर तोप, एक 24-पाउंडर हॉवित्जर तोप, एक 8-इंच हॉवित्जर तोप, महारानी की 8वीं रेजिमेंट के 200 सैनिक, सिख पुलिस कैवेलरी के 250 घुड़सवार और सिख पुलिस इन्फैंट्री के 165 जवान शामिल थे।
पिनाहाट का शांत जीवन बिखर गया अफरा-तफरी, दहशत, आशंका ने गॉवों की शांति को छिन्न-भिन्न कर दिया। उनके आगमन से पहले, आसन्न-सामीप्य खतरे की फुसफुसाहट सुनी जा रही थी। विद्रोही सैनिक, गाँव की रक्षा के लिए तैयारी में थे, ये गाँव दुर्गम बीहड़ों के बीच स्थित थे, बीहड़ों की खारों को प्राकृतिक किला समझ विद्रोही सैनिक मोर्चा लिए हुए थे। लेकिन जब क्रूर ब्रिगेडियर शावर्स और उसकी बटालियन पहुंची, तो ये मोर्चे बहुत कमज़ोर साबित हुए। ब्रिटिश सेनाओं ने गांव में विध्वंश किया। ब्रिटिश सेना ने कोई दया नहीं दिखाई। उन्होंने तोपखाने से गोलाबारी की, जिससे निहत्थे ग्रामीणों की जान चली गई। उनकी बंदूकें बीहड़ों में गरज रही थीं, जिससे भय और निराशा का माहौल पैदा हो गया। निर्दोष ग्रामीणों, महिलाओं और बच्चों को उनकी क्रूरता का खामियाजा भुगतना पड़ा। फिर भी, विपरीत परिस्थितियों में भी विरोध की भावना अटूट रही।
बघरेना (बघ्रेना) गाँव का घटनाक्रम
ब्रिगेडियर शावर्स को सुचना मिली की विद्रोही सैनिक भारी संख्या में फतेहाबाद में जमा हैं। बागी सैनिक को भी उसके आने की खबर हो गई थी और उन्होंने छिपने के इरादे से पिनाहाट के बीहड़ी गॉवों की तरफ रुख किया ये गाँव इनको शरण दिए हुए थे। शोवेर्स ने पिनाहाट पहुँचने पर यह वांछनीय समझा कि इन विद्रोही गाँवों को नष्ट कर दिया जाये। पर वहां पहुँचने के लिए सड़कें नहीं थीं, जो रस्ते थे उनपर बागी सैनिको की मोर्चा बंदी थी। ब्रिगेडियर शावर्स को तोपे लेकर जुते हुए खेतों से होकर जाना पड़ा। किसी तरह वह बघरेना गाँव पहुँचा और घेरा बंदी की, गाँव में भारी सैन्य बल और तोपे देख दहशत और अफरातफरी फैली थी। गाँववासी मवेशियों के साथ बीहड़ में चम्बल की तरफ भागे। सोवर्स ने अपने साथ की दो टुकड़ी की कमान आगरा पुलिस के प्रमुख मेजर हेनेसी को दी और निहत्ते गाँववासियों को चंबल पार करने का समय मिलने पहले ही मरने का आदेश दिया। मेजर हेनेसी ने दो तफर की घेराबंदी कर उनमें से लगभग 100 निहत्थे गामीणो को मार डाला, इनमें यहाँ के जमींदार कुरोरा सिंह भी शामिल थे। जमींदार कुरोरा सिंह ने तलवार से अंग्रेजी दल से अंतिम साँस तक लोहा लिया था।
क्रूर शोवेर्स अपने एक पत्र में "72वीं रेजिमेंट के देशी पैदल सेना के सिपाही काशी सिंह के वीरतापूर्ण आचरण की रिपोर्ट करते हुए बाघरेना गाँव की घटना का व्योरा लिखता हैं : "काशी सिंह ने, विद्रोही प्रमुख कुरोरा सिंह के साथ आमने-सामने की मुठभेड़ में वीरता दिखाई। काशी सिंह ने लगातार चार कट टाले और फिर अपने प्रतिद्वंद्वी पर अपनी संगीन ठोक दी। मैं इस आदमी के वीरतापूर्ण आचरण की अनुशंसा करता हूं और इसे नाइक के पद पर पदोन्नति के लिए विचार की अनुशंसा करता हूँ।"
ज़ेबरा गाँव ने दी शोवेर्स को चुनौती
ब्रिगेडियर शावर्स, मेजर हेनेसी की सेना को बघरेना गाँव में छोड़ कर ज़ेबरा गाँव की ओर बढ़ा, यहाँ भी कुछ बागी सिपाही के छुपे होने की खबर उसे लगी थी। वह 25 घुड़सवारों के साथ गाँव में आगे बढ़ता तभी उसे सामने से फायर आया जो मैचलोक गन (Matchlock Gun) फायर था। गाँव के मंदिर में बागी सिपाही मोर्चा जमाये बैठे थे और उनके समर्थन में लगभग सौ ग्रामवासी भी पीछे थे। शोवेर्स नें क्रन्तिकारी सिपाहियों से गंभीर चुनौती मिलती देख, तोपे भी मंगवा लीं और मंदिर पर तोप की फायर शरू कर दिया। इस हमले में दो 9-पाउंडर तोप, एक 24-पाउंडर हॉवित्जर तोप, एक 8-इंच हॉवित्जर तोप, सिख पुलिस कैवेलरी के 250 घुड़सवार और सिख पुलिस इन्फैंट्री के 165 जवान शामिल थे। जिससे क्रान्तिकारियों को मोर्चा छोड़ना पड़ा और ग्रामवासी भी बीहड़ में तीतर-बितर हो गए। सोवेर्स इन के पीछे बीहड़ों में दाखिल हुआ और खिल्ली गांव पहुँचा, जहां थोड़ा विरोध का सामना करना पड़ा पर जल्द ही ये गाँव सुनसान हो गया।
इन ग्रामवासियों ने अपने परिवारों को बीहड़ के आंतरिक स्थानों में बसा लिया था, जहां उन्हें स्पष्ट रूप से उम्मीद थी कि वे अछूते रहेंगे, वे अपनी महिलाओं और बच्चों के साथ अपना बिस्तर, कपड़े, भोजन आदि बाहर बीहड़ में ले आए थे। महीनो ये विषम परिस्थिति कायम रही।
शोवेर्स एक पत्र में इस घटना का व्योरा लिखता है : "इन बीहड़ों में ये हमला बहुत श्रमसाध्य था, हमारे सैनिको द्वारा पहाड़ियों की चोटी को अपने कब्जे में बनाए रखने की आवश्यकता है, साथ ही इन विद्रोहियों को यह महसूस कराना महत्वपूर्ण है कि ऐसी कोई भी स्थिति नहीं है जो ब्रिटिश सेना की पहुंच से बाहर हो। दुश्मन की ताकत का अनुमान लगाना असंभव है, क्योंकि उन्होंने खुद को कभी एक साथ नहीं दिखाया, लेकिन हमने लगभग 160 लोगों को मार डाला होगा; हमारा अपना नुकसान यह हुआ कि पुलिस बटालियन का एक जमादार मारा गया।"
पिनाहाट
के गॉवों की ये विरोधी प्रवति, उन लोगों की अदम्य राष्ट्रभक्ति भावना का प्रमाण है
जिन्होंने भारी बाधाओं के बावजूद अपनी मातृभूमि की रक्षा की। ब्रिटिश क्रूरता और विश्वासघात
के सामने पिनाहाट के विद्रोहियों ने अद्वितीय साहस का परिचय दिया। यह कहानी याद दिलाती
है कि आज़ादी की लड़ाई अक्सर कठिनाई और बलिदान से भरी होती है। पिनाहाट में मजबूती
से खड़े रहने वालों की विरासत आने वाली पीढ़ियों को न्याय और स्वतंत्रता की खोज में
हमेशा प्रेरित करती रहेगी।
जगदेव सिंह भदौरिया
ग्राम सरोखीपुरा
Whatapp : 9958010262
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