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बटेश्वर जन-श्रुतिया व किवदंतिया

बटेश्वर में यमुना के बीहड़ चम्बल की खूंखार घाटियों से गले मिलती सी प्रतीत होती है भदावर में लोकविश्वास है की सभी तीर्थो की यात्रा तब तक पूरी नहीं होती, जब तक की बटेश्वर में पूजा का जल न चढ़ाया जाए। आदि काल से ही बटेश्वर शिव तीर्थ रहा है 'गर्गसहिंता' में कहा गया है की श्रावण-शुक्ला और महाशिवरात्रि पर यमुना स्नान करने पर अक्षय पुण्य मिलता है बटेश्वर में मोक्षदायिनी यमुना किनारे-किनारे १०१ मंदिर अर्धचन्द्राकार रूप में यमुना  मैय्या के प्रवाह को मोड़ते है । 

ये अद्भुत मंदिर अतीत की कितनी ही अनकही दास्ताने, मिथक, जन-श्रुतिया व किवदंतिया अपने सीने में सजोये भविष्य की ओर बाहें फेलाए खड़े है । अकबर के समय में यहाँ भदौरिया राजपूत राज्य करते थे। कहा जाता है कि एक बार राजा बदनसिंह जो भदावर के तत्कालीन शासक थे, मुग़ल दरबार में उपस्थित थे तो उन्होने अकबर को बटेश्वर के बीहड़ो में शिकार पर आने का निमंत्रण दिया पर अकबर को मार्ग परिचय देते समय उनसे भूल हो गई, वे यह कह गए कि आगरे से बटेश्वर पहुँचने में यमुना को नहीं पार करना पड़ता, उन्होंने बटेश्वर को यमुना के बाये किनारे बता दिया, जो वस्तु स्थिति के विपरीत था। वापस लौटने पर उन्हें अपनी भूल का ज्ञान हुआ, आगरे से बिना यमुना पार किए बटेश्वर नहीं पहुँचा जा सकता था। राजा बदनसिंह चिन्ता में पड़ गए की उन्हे सम्राट के सामने झुठा बनना पड़ेगा, उन्होंने तुरंत यमुना की धारा को मोड़ने का निश्चित कर डाला और उनका उत्साह, साहस, शोर्य व पराक्रम सहस्त्रो श्रमिको के साथ यमुना के वेगवती प्रवाह को मोड़ने में लग गया, महाराज घोड़े पर सवार हो श्रमिको का उत्साह बड़ाने के लिए यमुना किनारे कड़े रहते थे, प्रकृति आश्चर्य भरी आँखों देखती रही और पक्का बांध बनने लगा और मिटटी डाल-डाल कर यमुना को मोड़ा जाने लगा, कुछ समय में ही महाराज का स्वपन पूरा हो गया। युगों से पश्चिम से पूर्व की ओर बहनेवाली यमुना को अब पूर्व से पश्चिम की ओर बहा दिया और बटेश्वर के दूसरी ओर कर दिया, साधारण जन बटेश्वर के जमुना के दूसरी तरफ आ जाने से भोचक्के थे उन्हे लगा के उनका क़स्बा पलट गया है और इसी वजह से बटेश्वर को औंधा-खेरा भी कहा जाता था बटेश्वर ग्राम को यमुना की धारा से हानि न पहुँचे इसलिए एक मील लम्बे, अत्यन्त सुदृढ़ पक्के घाटों का निर्माण करवाया गया, बटेश्वर के १०१ मंदिर इसी बांध पर बने है।
Bateshwar Legends

बटेश्वर के ऊँचे-ऊँचे टीले, कगारें और पौराणिक स्थल यहाँ की प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं। 'कंस कगार' को देखकर यहाँ की पौराणिकता आज भी स्पस्ट झलकती है। ऐसा कहा जाता है कि कंस के पिता उग्रसेन ने अपने पुत्र को अशुभ नक्षत्र में जन्म लेने के कारण एक काठ के संदूक में रखकर सैनिकों को आदेश दिया कि इसे यमुना में बहा दो। सैनिकों ने नवजात शिशु कंस को नदी में बहा दिया। वह संदूक बहते-बहते बटेश्वर के इस टीले के पास आ लगा। वहाँ पर स्नान करने वाले लोगों ने उस संदूक को बाहर निकालकर देखा तो उसमें एक नवजात शिशु को किलकारी भरते पाया। एक व्यक्ति ने उस शिशु को ले लिया और पुत्रवत पालन-पोषण करने लगा। कुछ समय बाद राजा उग्रसेन बटेश्वर आये। उन्होंने उस सुंदर शिशु को जब देखा, तब उनके अंदर उसके प्रति ममत्व उत्पन्न हुआ। लोगों ने जब उन्हें पूरा किस्सा सुनाया तो उन्होंने शिशु को चूमकर गोद में ले लिया और अपने साथ मथुरा ले गये। इसी कारण इस टीले का नाम कंस कगार पड़ गया।

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